BHU पुरातन छात्रः डॉ. लालजी सिंह ने जटिल मामलों में मुश्किल आसान की

BHU पुरातन छात्रः डॉ. लालजी सिंह ने जटिल मामलों में मुश्किल आसान की


काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में 17 जनवरी से पुरा छात्र समागम होने जा रहा है। उसी के मद्देनजर शुरू की गई सीरीज में आज बीएचयू के पुरा छात्र डाक्टर लालजी सिंह के बारे में चर्चा। लालजी सिंह न सिर्फ यहां के छात्र रहे बल्कि यहां के कुलपति भी बने।


किसी की मौत के बाद शरीर की ऐसी हालत हो जाय कि पहचानना मुश्किल हो तो परिवारीजनों के लिए काफी विकट स्थिति होती है। इस मुश्किल को दूर किया बीएचयू के मेधावी छात्र डॉ. लालजी सिंह ने। उनकी खोज डीएनए फिंगर प्रिंटिंग के जरिये ऐसे लोगों की पहचान करना काफी आसान हो गया। इस काम के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था। बीएचयू के इस छात्र को बाद में विश्वविद्यालय का कुलपति बनने का भी गौरव हासिल हुआ।


डॉ. सिंह की इस खोज ने आपराधिक जांच की प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। जौनपुर के कलवारी गांव के सामान्य किसान परिवार से आने वाले डॉ. सिंह ने अपनी मेधा के बूते दुनिया में जगह बनाई। उन्होंने अपने गृह जनपद में जिनोम फाउंडेशन नाम से संस्था भी खोली, जहां शोध के आधार पर खासकर आदिवासी जनजातियों की पीढ़ियों पर अध्ययन किया जाता है। बतौर कुलपति उन्होंने अपने कार्यकाल में वेतन के रूप में सिर्फ एक रुपया प्रतिमाह ग्रहण किया।


डॉ. सिंह की पहल पर पहली लैब हैदराबाद में स्थापित हुई। 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद उनके शव की पहचान एक जटिल समस्या थी। ऐसे समय में डॉ. सिंह की फिंगर प्रिंटिंग ने मदद की। उनकी सलाह पर राजीव गांधी की बेटी प्रियंका के नाखून का अंश लेकर जांच की गई। घटनास्थल पर मिले अवशेषों से इनका मिलान किया गया, तब जाकर राजीव गांधी के शव की पहचान हो सकी। इसके अलावा नैना साहनी मर्डर, स्वामी श्रद्धानंद, सीएम बेअंत सिंह, मधुमिता मर्डर के खुलासे में भी डीएनए फिंगर प्रिंट इन्वेस्टीगेशन काम आया। 


संघर्षों में बीता बचपन
डॉ. सिंह का बचपन संघर्षो में बीता। पिता साधारण किसान थे। लालजी सिंह घर से 12 किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ने जाते थे। जौनपुर में इंटर करने के बाद 1962 में बीएचयू में दाखिला लिया। यहां बीएसएसी, एमएससी और फिर पीएचडी की। उनकी 62 पन्नों की थीसिस को उस समय जर्मनी के मशहूर जर्नल ने छापा तो विज्ञान की दुनिया में तहलका मच गया। कलकत्ता यूनिवर्सिटी के रिसर्च यूनिट (जूलॉजी) जेनेटिक में 1971-1974 तक रिसर्च करने का मौका मिला। फिर 1974 में कॉमनवेल्थ फेलोशिप मिली तो यूनाइटेड किंगडम गए। 


अपने देश से था लगाव
डॉ. लालजी सिंह ब्रिटेन चले तो गये पर विदेशी की चकाचौध रास नहीं आयी और स्वदेश लौट आए। 1987 में कोशिकीय और आणविक जीव विज्ञान केंद्र हैदराबाद (सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी) में एक साइंटिस्ट के रूप में शुरुआत की। फिर अपनी मेधा के दम पर 1999 से 2009 तक यहीं डायरेक्टर के पद पर तैनात रहे। 2011 में उन्हें बीएचयू का कुलपति नियुक्त किया गया। 


बीएचयू के लिए समर्पण
बीएचयू का कुलपति बनने के बाद डॉ. सिंह अक्सर कहा करते थे कि जिस संस्था और समाज से आपने लिया है, उसे वापस करना भी आपकी जिम्मेदारी है। यही कारण था कि कुलपति के रूप में उन्होंने महज एक रुपया महीना लेना स्वीकार किया। शेष राशि उन्होंने विश्वविद्यालय के लिए छोड़ दी